अंतरद्वन्द
लो फिर आ गया में कुरुक्षेत्र के मैदान में…
अपने कृष्ण के मोह में,
अपने कृष्ण के सम्मान में…
चारो और हाहाकार था मचा,
और में समय में पीछे हो चला…
था मैं शयनकक्ष के द्धार पर खड़ा,
दुर्योधन सिरहाने और अर्जुन पाँव था पड़ा…
आँखे खुली भगवान की जब,
देखा अर्जुन को पहले खड़ा तब…
भोले बनकर इच्छा पूछी,
जानते थे सब किसकी क्या है रूचि…
बातें निकली और तब आगे,
सुनता रहा मैं सब जागे-जागे…
धधक उठा मन, साँसे हुई अधूरी,
जब सुना की जायेंगे खुद पांडवो के साथ और दे दी दुर्योधन को सेना पूरी…
कही धमाका हुआ बड़ा,
मैं फिर से रण में हुआ खड़ा…
लाशें गिर रही चारो और हर क्षण,
युद्ध शुरू हुआ जो भीषण…
लिए तलवार शत्रु का सर काटने लगा,
न जाने कितने थे अपने और कौन कौन था सगा…
कभी लाशो पर चला, कभी खून सनी मिटटी पर गिरा,
पर अपने कर्म पर था मै अडिग खड़ा…
सामने दिखा तभी अर्जुन का रथ,
दिखा रहे जिसे मेरे कृष्ण पथ…
दिल और दिमाग का फिर द्वन्द – प्रतिद्वंद हुआ,
ऊठाऊँ उसपर शस्त्र मैं कैसे जिसको मेरे हरी ने छुआ…
घुटनो पर बैठ सर मैंने दिया झुका,
अब होगा बस वो जो मेरे भगवान ने कहा…
न जाने कितने बाण लगे, न जाने कितने भाले चुभे…
मैं गिरा हथियार अपने डाल,
वो अंतरद्वन्द था मेरा जिसने था किया मुझे निढाल…
बस मन में जागा एक ही सवाल,
क्यों ? आखिर क्यों कृष्ण तुमने हमारा किया ये हाल…
थे हम तो तुम्हे सबसे प्यारे,
फिर क्यों तोड़ दिए तुमने बंधन सारे…
है नहीं मुझको दुःख की मैं इस तरह मरूंगा,
बस तड़प रहा हूँ की मैं अनंतकाल इस अंतर्द्वंद में जलूँगा…